Monday, August 24, 2009

नफरत का रास्ता है, ये बंद दरवाजा !

खुदा का हर बन्दा खुले दरवाजे से प्यार का इज़हार करना चाहता है, लेकिन दरवाज़े ही जब बंद हों तो मुहब्बत को नफरत में बदलते देर नहीं लगती। कहते हैं ऊपर वाले के दरबार में देर है पर अंधेर नहीं, लेकिन नीचे ऐसा कुछ नहीं दिखता।
बात हिन्दुस्तान के मुलमानों की करें तो इतना तो ज़रूर कहा जा सकता है कि जाहिलों को तो छोड़ दीजिये पढ़े लिखे ज्यादातर लोग भी उनसे अछूतों सा ही आचरण करते हैं।
मेरे अपने कुछ अनुभव हैं। कुछ गाँव के कुछ शहर के भी। इन अनुभवों को आपसे बांटना चाहता हूँ शायद ये बातें एक कड़ी का काम करें हमारी भावनाओं को आप तक पहुंचाने में और मेरे सच को आपके नब्ज़ टटोलने में।
एक मुस्लिम टीचर थे मेरे। मुझे उनके लिए एक किराए का घर तलाशना था। बिहार के ही रहने वाले थे और पटना में एक प्रतिष्ठित कॉलेज में फिजिक्स पढाते थे। वो महेन्द्रू की तंग गलियों से निकलकर किसी अच्छे इलाके में रहना चाहते थे। मुझे उन्होंने एक अच्छा घर तलाशने को कहा। मैंने दो सौ से ज्यादा दरवाजों पर दस्तक दी, मकान खाली था लेकिन जैसे ही मकान मालिक को पता चलता कि जिसे किराये के लिए मकान चाहिए वो मुसलमान है तो कोई बहाने बनाकर मकान देने से मना कर देता तो कोई साफ़ कह देता कि मैं मुसलमानों को किराए पर मकान नहीं देता, पूजा पाठ करने वाला इंसान हूँ। हार थक कर मुझे अपने टीचर से वो कहना पड़ा जो मैं कहना नहीं चाहता था।
मेरे कॉलेज में पढने वाले मुसलमान दोस्त भी कई बार बातों बातों में कह देते थे, यार मकान ढूंढ़ना मुश्किल का काम है, अच्छे इलाके में मकान नहीं मिलता, हिंदू तो हमें मकान किराए पर देना ही नहीं चाहते। ये बातें इतनी नाजुक होती थीं कि कई बार ऐसा लगता था मेरा अपना घर होता और उसमें थोडी सी जगह होती तो इन सबकी मुश्किलें आसन कर देता लेकिन सवाल सिर्फ़ मेरे या मेरे जैसे कुछ लोगों का नहीं है। सवाल है पूरे मुल्क का और मुल्क के हिन्दुओं जैसे ही वफादार musalmaanon का जिनके दिल में नफरत घर कर रही है।
आप ख़ुद सोचिये जो एक दोस्त से ऐसी शिकायतें कर सकता है क्या बंद दरवाजों से लौटकर मुहब्बत की बातें कर सकता है।
कब तक हम बंद रखेंगे अपने हमवतन के लिए दरवाजे, क्या नफरत से कुछ हासिल हो सकता है, क्या अब वो वक्त नहीं आ गया कि हम अपने बच्चों को सिखाएं कि वो गैर नहीं अपने हैं।