पी एम बनना है
सा रे गा म प क सेट पर लालू की मौजूदगी कोई इत्तफाक नहीं लालूजी की पुरानी और
परखी हुई सूझ है। बिहार से दिल्ली और फिर रेल से पी एम की कुर्सी तक का सफ़र लालू को साफ दिखाई दे रहा है। लेकिन इसके लिए फिलहाल उन्हें ऐसे मंचों की सख्त ज़रूरत है, जहाँ वे साबित कर सकें कि उनकी तस्वीर अब वोह नहीं है, जो कुछ दिनों पहले तक थी । चारे से जोरकर लोगों ने लालू को इतना देखा है कि उससे निकलना एक बड़ी चुनौती बन गयी है। रेल को फायदा कराने का इतना प्रचार भी उनकी चारा घोटाले वाली छवि को धूमिल नहीं कर पा रहा। केंद्र में बैठे बिना जनाधार वाले नेताओं को देखकर लालू जी इतना तो ज़रूर अंदाज़ लगा चुके होंगे कि जब वोह तो मैं क्यों नहीं ? पर फिर वही पुराना सवाल कि जनता को कैसे समझायें कि मैं वोह नहीं ये हूँ। सो अब सबसे अधिक टीआरपी वाले कार्यक्रमों का रुख कर रहे हैं, लोगों को पाठ पढा रहे हैं कि बडों के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिऐ, गुरू के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए। वाह लालू जी वाह। आप ऐसे ही अपने नए राग अलापते रहिए । लोग आपके नए चहरे से ज़रूर प्रभावित होंगे। यहाँ तो लोग अपने पुरखों को भूलते हैं, पिछली करतूतें भुलाने में उन्हें कोइ वक़्त नहीं लगेगा।
पी एम ज़रूर बनियेगा।
Sunday, September 2, 2007
Wednesday, August 22, 2007
मेरा सरोकार
बन्दर की पूँछ खींचना और फिर भाग खड़ा होना यहीं तक राजनीति से वाम दलों का सरोकार है। सरकार है तो इसे चलाने वाले लोगों की भी जरूरत है। गलत है तो इसे सही साबित करने वालों की भी ज़रूरत है। राईट है तो लेफ्ट की भी ज़रूरत है। तभी तो सरकार बीच वाले ट्रैक पर चल पायेगी। जनता को पता नहीं क्या हो गया है। जो लोग साथ बैठकर खाते पीते हों, सरकारी सुविधाएं गरक करने मे जी जान से लगे हों वो सरकार आख़िर क्यों गिरायें। कोइ अपना घर खुद गिराता है क्या । पते की बात तो ये है कि बयान देने से पहले ही ये अन्धसमर्थक इस बात पर भी विचार विमर्श कर लेते हैं कि जनता के बीच किस बात का क्या संदेश जाएगा। साथ ही ये रणनीति भी पहले ही तय होती है कि पांव पीछे कब और कैसे खीचना है। ये कैसा विरोध है। डील तो पहले ही सील और signed है फिर ऐसा क्या समझौता हो गया कि लेफ्ट ने फैसला पलट लिया । अब जनता के बीच क्या रसगुल्ला लेने जायेंगे। क्या इनका सरोकार जनता को बार बार गुमराह कर राजनीति की चिकनी चोपरी रोटी सेकने तक है। जनता को क्या वाकई इनकी बात समझ में नहीं आ रही है।
आप इस विषय पर अपना मंतव्य हमें ज़रूर भेजें।
अमरेश
आप इस विषय पर अपना मंतव्य हमें ज़रूर भेजें।
अमरेश
Tuesday, July 31, 2007
मर्ज है तो दवा भी ज़रूर होगी
संजय दत्त को ६ साल की सज़ा सुनाने के चंद लम्हे बाद ही इस बात की चर्चा होने लगी कि आख़िर टाडा अदालत के फैसले को पलटने के लिए क्या तरकीब अपनाई जाये? ऐसा लग रहा था जैसे टाडा ने किसी मरीज को बडे अस्पताल में रेफ़र कर दिया हो. क्या न्याय की गुहार लगा रहे लोगों par ऐसा तमाचा किसी भी तरीके से जडा जान चाहिऐ जिसमे एक अदालत के फैसले को पूरी तरह से बदल दिए जाने की बात की जा रही हो। पहले ही १४ साल बाद लोगों को न्याय मिल paayaa है। अब अगर ऊपर की adaalat में और वक़्त zaayar किया गया तो लोगों kaa nyaay
संजय दत्त को ६ साल की सज़ा सुनाने के चंद लम्हे बाद ही इस बात की चर्चा होने लगी कि आख़िर टाडा अदालत के फैसले को पलटने के लिए क्या तरकीब अपनाई जाये? ऐसा लग रहा था जैसे टाडा ने किसी मरीज को बडे अस्पताल में रेफ़र कर दिया हो. क्या न्याय की गुहार लगा रहे लोगों par ऐसा तमाचा किसी भी तरीके से जडा जान चाहिऐ जिसमे एक अदालत के फैसले को पूरी तरह से बदल दिए जाने की बात की जा रही हो। पहले ही १४ साल बाद लोगों को न्याय मिल paayaa है। अब अगर ऊपर की adaalat में और वक़्त zaayar किया गया तो लोगों kaa nyaay
Thursday, May 24, 2007
लाल मंडी
लाल मंडी
मंडी में ज़िंदगी के २५ बरस बिताने के बाद आखिरकार नवाज़ मियाँ को मनचाहा काम मिल ही गया। अब उसे इस बात की कोई चिन्ता नहीं कि कर्मों का क्या नतीजा होगा बल्कि विश्वास है कि उसका ये हुनर बड़ी पदवी दिला कर रहेगा। सीमा पार से किये कारोबार का अनुभव नवाज़ के इलाक़े के लोगों के लिए पहले भी काफी फायदेमंद साबित हुआ है। इस पार की मवेशियों को इनके दादा परदादा विदेश भ्रमण पर भेजते थे, बाप और चाचा लड़कियों के आर पार में जुटे थे लेकिन किसी ने भी उतनी तरक्क़ी हासिल नहीं की जो नवाज़ मियाँ को हासिल हुई है। इलाक़े का बच्चा-बच्चा जानता है कि नवाज़ अपने बाप दादे के कारोबार में नहीं है। ना तो आजतक इसने किसी की मवेशी सीमापार भेजी ना किसी की छोकरी पर हाथ डाला। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इसने नेताओं की कितनी सेवा की है। इलाक़े के छोटे - बडे ना जाने कितने नेता इनकी बदौलत असेम्बली और संसद तक पहुंच चुके हैं। बूथ लूटना हो या फिर चुनाव के लिए पैसे जुटाने हों सारे मुश्किल काम नवाज़ मियाँ का नाम लेते ही आसान हों जाते हैं। लेकिन ये डर नवाज़ मियाँ को अक्सर सता रहा था कि इसके काले कारनामों और सीमा पार से की गयी असलहों की तश्करी का कहीं राज तो नहीं खुल जाएगा। फिर क्या था ये भय भी खत्म तो करना ही था। सोचा दिल्ली का रुख करें तो बात कुछ बन सकती है। दिल्ली से बडे-बडे नेता नवाज़ मियाँ के लिए वोट मांगने आए .
..shesh aage .......
मंडी में ज़िंदगी के २५ बरस बिताने के बाद आखिरकार नवाज़ मियाँ को मनचाहा काम मिल ही गया। अब उसे इस बात की कोई चिन्ता नहीं कि कर्मों का क्या नतीजा होगा बल्कि विश्वास है कि उसका ये हुनर बड़ी पदवी दिला कर रहेगा। सीमा पार से किये कारोबार का अनुभव नवाज़ के इलाक़े के लोगों के लिए पहले भी काफी फायदेमंद साबित हुआ है। इस पार की मवेशियों को इनके दादा परदादा विदेश भ्रमण पर भेजते थे, बाप और चाचा लड़कियों के आर पार में जुटे थे लेकिन किसी ने भी उतनी तरक्क़ी हासिल नहीं की जो नवाज़ मियाँ को हासिल हुई है। इलाक़े का बच्चा-बच्चा जानता है कि नवाज़ अपने बाप दादे के कारोबार में नहीं है। ना तो आजतक इसने किसी की मवेशी सीमापार भेजी ना किसी की छोकरी पर हाथ डाला। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इसने नेताओं की कितनी सेवा की है। इलाक़े के छोटे - बडे ना जाने कितने नेता इनकी बदौलत असेम्बली और संसद तक पहुंच चुके हैं। बूथ लूटना हो या फिर चुनाव के लिए पैसे जुटाने हों सारे मुश्किल काम नवाज़ मियाँ का नाम लेते ही आसान हों जाते हैं। लेकिन ये डर नवाज़ मियाँ को अक्सर सता रहा था कि इसके काले कारनामों और सीमा पार से की गयी असलहों की तश्करी का कहीं राज तो नहीं खुल जाएगा। फिर क्या था ये भय भी खत्म तो करना ही था। सोचा दिल्ली का रुख करें तो बात कुछ बन सकती है। दिल्ली से बडे-बडे नेता नवाज़ मियाँ के लिए वोट मांगने आए .
..shesh aage .......
Saturday, April 28, 2007
आपका दलाल
आपका दलाल
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि जहाँ आम लोगों की अनगिनत समस्याओं का हल ढूंढ़ना मुश्किल हो रहा है वहां नेता दलाली और कबूतरबाजी में अपना समय लगा रहे हैं। ये बात संसद तक पहुंच चुके जनप्रतिनिधियों से लेकर सड़क छाप नेताओं तक बराबर लागू हो रही है। बडे नेताओं के छोटे नेता दलाल हैं। नेताओं को वक़्त ही नहीं मिलता की वे ठीकेदारी के अलावा जनकल्याण की बातें करें। ऐसा मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। २००४ में लोकसभा चुनावों के दौरान मुझे बिहार में कई लोकसभा क्षेत्रों का दौरा करने का मौका मिला । मैंनें देखा कि नेता ठेकेदारों से घिरे थे और दिन भर के चुनाव प्रचार के बाद सिर्फ इसी विषय पर तर्क वितर्क करते थे कि कल किस इलाक़े में कौन सा झूठ बोला जा सकता है। ठेकेदार प्रत्याशी को पूरी तत्परता से ये बताने में व्यस्त दिखते थे कि आज पूरे दिन कितने रुपये बांटे गए। और इन सबके बदले बार-बार प्रत्याशी यही आश्वासन देता कि चिन्ता मत करो मेरे सांसद बनने के बाद तुम्हीं लोगों का राज होगा। लोकतंत्र की हत्या तो वहीं हो गयी। ठेकेदारों और बनियों के पैसे से चुनाव लड़ने वाले नेताओं से अगर जनता विकास और कल्याण की उम्मीद करती है तो इसे बेवकूफी से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता। आप दलाल चुनेंगे तो नेता दलाली ही करेंगे। ऐसा नहीं है कि सारे नेता ऐसे ही हैं। मैं ऐसे नेताओं से भी मिला हूँ जो जनहित के लिए राजनीति करते हैं। लेकिन उनका भी यही रोना है कि ज्यादातर लोग ऐसे कार्यों के लिए आते हैं जिनमें वोह हमसे दलाली की उम्मीद करते हैं। ज़रूरत इस बात की है कि राजनीति में स्वस्थ परम्परा का विकास हो और अच्छे जनप्रतिनिधियों का चयन किया जाये ताकि आपको अपने नेता की करतूतों की वजह से शर्मिंदा ना होना पड़े।
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि जहाँ आम लोगों की अनगिनत समस्याओं का हल ढूंढ़ना मुश्किल हो रहा है वहां नेता दलाली और कबूतरबाजी में अपना समय लगा रहे हैं। ये बात संसद तक पहुंच चुके जनप्रतिनिधियों से लेकर सड़क छाप नेताओं तक बराबर लागू हो रही है। बडे नेताओं के छोटे नेता दलाल हैं। नेताओं को वक़्त ही नहीं मिलता की वे ठीकेदारी के अलावा जनकल्याण की बातें करें। ऐसा मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। २००४ में लोकसभा चुनावों के दौरान मुझे बिहार में कई लोकसभा क्षेत्रों का दौरा करने का मौका मिला । मैंनें देखा कि नेता ठेकेदारों से घिरे थे और दिन भर के चुनाव प्रचार के बाद सिर्फ इसी विषय पर तर्क वितर्क करते थे कि कल किस इलाक़े में कौन सा झूठ बोला जा सकता है। ठेकेदार प्रत्याशी को पूरी तत्परता से ये बताने में व्यस्त दिखते थे कि आज पूरे दिन कितने रुपये बांटे गए। और इन सबके बदले बार-बार प्रत्याशी यही आश्वासन देता कि चिन्ता मत करो मेरे सांसद बनने के बाद तुम्हीं लोगों का राज होगा। लोकतंत्र की हत्या तो वहीं हो गयी। ठेकेदारों और बनियों के पैसे से चुनाव लड़ने वाले नेताओं से अगर जनता विकास और कल्याण की उम्मीद करती है तो इसे बेवकूफी से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता। आप दलाल चुनेंगे तो नेता दलाली ही करेंगे। ऐसा नहीं है कि सारे नेता ऐसे ही हैं। मैं ऐसे नेताओं से भी मिला हूँ जो जनहित के लिए राजनीति करते हैं। लेकिन उनका भी यही रोना है कि ज्यादातर लोग ऐसे कार्यों के लिए आते हैं जिनमें वोह हमसे दलाली की उम्मीद करते हैं। ज़रूरत इस बात की है कि राजनीति में स्वस्थ परम्परा का विकास हो और अच्छे जनप्रतिनिधियों का चयन किया जाये ताकि आपको अपने नेता की करतूतों की वजह से शर्मिंदा ना होना पड़े।
Thursday, April 26, 2007
ये दर्द
देश के विभाजन का दर्द आज भी कई लोगों की जिंदगी को प्रभावित कर रहा है। इसको लेकर सियासत का दौर भी लंबा चला है , लेकिन क्या आपने सोचा है कि इससे बड़ा बटवारा भी अपने देश में किन बातों को लेकर हुआ है? जातिवाद, छूआछूत और पाश्चात्य संस्कृति का अन्धनुकरण यह सब ऐसे कारण हैं जिन्होंने हमें इस क़दर बाँट दिया है कि इसकी कीमत पूरे देश को, समाज को और नयी पीढी को चुकानी पड़ रही है। जातिवाद अपने आप में कोई अभिशाप नहीं है लेकिन इसको लेकर जो उंच-नीच का भाव भारतीय समाज में पनपा वह किसी विष से कम नहीं कहा जा सकता। हम अपने ही लोगों से इस क़दर बंट चुके हैं कि शायद फिर से एक-दूसरे से जुड़ पाना सपना
रह जाये...
रह जाये...
आपका स्वागत है हमारे ब्लोग कलियुग-कथा में !
इस ब्लोग के जरिये हमारी कोशिश होगी आपको साहित्य की विविध विधाओं के जरिये समाज में रचनात्मक परिवर्तन के लिए प्रेरित करने की। आप ये देख रहे होंगे कि भारतीय साहित्य विधा दुनिया में इन दिनों कोई खास पहचान नहीं बना पा रही। न तो प्रेमचंद जैसे लेखक और न ही गोदान जैसी कृतियाँ देखने को मिल रही हैं। सस्ते साहित्य से बाज़ार भरता जा रहा है. दुनिया के बाक़ी देशों में लिखी जा रही किताबें अधिक चर्चित हो रही हैं और दुर्भाग्य से भारत में भी उनका बाज़ार फैल रहा है। इसलिये मैंनें ये जरूरत महसूस की है कि भारतीय साहित्य जगत में जो कुछ हो रहा है उससे आपको परिचित कराऊँ ताकि आप भी अपनी जिम्मेदारी समझ सकें कि आपका समाज आपके साहित्य से ही समृद्ध और सभ्य हो सकता है। मैं ये नहीं कह रहा कि आप बाहरी साहित्य ना पढ़ें मैं तो सिर्फ ये चाहता हूँ कि आपका भारतीय साहित्य के प्रति प्रेम और आकर्षण बढ़े
अमरेश
इस ब्लोग के जरिये हमारी कोशिश होगी आपको साहित्य की विविध विधाओं के जरिये समाज में रचनात्मक परिवर्तन के लिए प्रेरित करने की। आप ये देख रहे होंगे कि भारतीय साहित्य विधा दुनिया में इन दिनों कोई खास पहचान नहीं बना पा रही। न तो प्रेमचंद जैसे लेखक और न ही गोदान जैसी कृतियाँ देखने को मिल रही हैं। सस्ते साहित्य से बाज़ार भरता जा रहा है. दुनिया के बाक़ी देशों में लिखी जा रही किताबें अधिक चर्चित हो रही हैं और दुर्भाग्य से भारत में भी उनका बाज़ार फैल रहा है। इसलिये मैंनें ये जरूरत महसूस की है कि भारतीय साहित्य जगत में जो कुछ हो रहा है उससे आपको परिचित कराऊँ ताकि आप भी अपनी जिम्मेदारी समझ सकें कि आपका समाज आपके साहित्य से ही समृद्ध और सभ्य हो सकता है। मैं ये नहीं कह रहा कि आप बाहरी साहित्य ना पढ़ें मैं तो सिर्फ ये चाहता हूँ कि आपका भारतीय साहित्य के प्रति प्रेम और आकर्षण बढ़े
अमरेश
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